बुधवार, 31 दिसंबर 2008

नई उमंग नई खुशियों के संग



बफीüली रातों की एक हवा जागी


और बर्फ की चादर ओढ़


सुबह के दरवाजे पर दस्तक दी उसने


उनींदी आखों से सुबह की अंगड़ाई में


भीगी जमीन ज्यों


फूटा एक नया कोपल


नए जीवन और नई उमंग नई खुशियों के संग


दफना कर कई काली रातों को


çझलमिलाते किरनों में भीगता


नई आशाओं की छाव में


सपनों का संसार बसाने


बफीüली रात की अंगड़ाई के साथ


बसंत के आने की उम्मीद लिए


आज सब पीछे रह छोड़ चला


वो अपनाने नए आकाश को


नए सुबह की नई धूप में


नई आशाओं की किरन के संग


आज फिर आया है नया साल


पीछे छोड़ जाने को परछाइयां


(साभार मानोशी चटर्जी)


सभी ब्लोगर बंधुओं, दोस्तों और प्रियजनों को नए साल की बहुत-बहुत शुभकामनाएं।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

जिंदगी की यही रीत है

जिंदगी के हर मोड़ पर विरोधाभास है। हमारे पैदा होने से लेकर मरने तक हमें इन्हीं विरोधाभासों के बीच जीना होता है। जो हम चाहते हैं वो हमे मिलता नहीं। जिसके बारे में हमने कभी सोचा नहीं वो आसानी से मिल जाता है। जैसे-जैसे कुछ मिलता जाता है। वैसे-वैसे कुछ छूटता जाता है। मुझे याद है मैं पांचवी कक्षा में पढ़ता था। घर वाले चाहते थे। मैं पढ़ लिखकर अफसर बनूं, इसलिए नवोदय स्कूल की परीक्षा दिलाई। मैं जैसे-तैसे मेहनत करके जिले के 40 उन बच्चों में शामिल हो गया, जिनका चयन हर साल इस स्कूल के लिए किया जाता है। बस यहीं से अपनों से दूर होने का सिलसिला शुरू हो गया। इसके बाद खुद को संवारने के लिए जैसे-जैसे आगे बढ़ा बहुत कुछ पीछे छूटता गया। कभी दोस्तों से दूरी बनी तो कभी भाई बहन, दादा-दादी और सभी घर वालों से। जब मैं पहली बार नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गया तो उसी दिन बाबा की तबीयत अचानकर खराब हुई, उन्हें अस्पताल में भतीü करवाना पड़ा। जब सलेक्शन हो गया और ऑफिस से कॉल आया तो पता चला बाबा कोमा में चले गए और बिना बोले ही इस दुनिया से चले गए। मैं उन्हें यह भी नहीं बता सका कि मैरी नौकरी लग गई है। मेरी ख्वाहिश अधूरी ही रही कि पहली तन्ख्वाह से उनके लिए कुछ ला पाता। जिंदगी का विरोधभास यहां भी खत्म नहीं हुआ। जब पहला प्रमोशन मिला तो उसके ठीक दो दिन बाद मेरी एक अजीज दोस्त से दूरियां बन गई, करीब डेढ़ साल हो गया, उसके बाद आज तक उससे बात भी नहीं हो सकी। उसके साथ बिताए वो दिन आज भी रुला देते हैं। इसके बाद जब दूसरा प्रमोशन मिला तो उस दिन दादी की तबीयत ख्ाराब हो गई और उसे अस्पताल में भतीü करवाने गया। 20 दिन तक अस्पताल में ही ऊपर नीचे चक्कर काटते-काटते गुजरे। अब डर लगता है कि भगवान समृद्धि और खुशी तो दे लेकिन ऐसी नहीं कि जिनके लिए समृद्धि चाहिए वो ही साथ नहीं रहे। ऐसा शायद सबके साथ होता है, लेकिन क्यों होता है किसी को पता नहीं। अगर कोई इस राज को जान पाए तो मुÛो जरूर बतलाए।

गुरुवार, 26 जून 2008

बापू को तो बख्शो

किसी लेखक ने लिखा है कि किसी व्यक्ति का चरित्र पूरी तरह जाने बिना उसे कुत्ते जैसी गाली देना कुत्ते की बेइज्जती करना है। ऐसा ही ख्याल अमेरिका के एक प्रतिçष्ठत अखबार ने भी नहीं रखा और हाल ही में ऐसी महान आत्मा जिसे न केवल भारत के एकअरब से ज्यादा लोग बल्कि विदेशी भी महात्मा और बापू जैसे अति सम्मानीय शब्द से संबोधित करते हैं, उनकी तुलना करोड़ो लोगों की जेब काट कर धनकुबेर बने इंसान से कर दी। देश के सभी प्रतिçष्ठत अखबारों में खबर भी छपी कि मुकेश अंबानी का जीवन दर्शन महात्मा गांधी के जैसा है। जिसने भी यह तुलना की या तो वो गांधीजी के बारे में थोड़ा बहुत भी नहीं जानता या फिर सिर्फ लिखने और कमाने के लिए ही उसने ऐसा किया। उसे यह भी पता नहीं था कि गांधीजी का पूरा नाम मोहनदास कर्मचंद गांधी है, लेकिन जनता उन्हें महात्मा गांधी या बापू नाम से ही संबोधित करती है। जिसे करोड़ों लोग महात्मा या बापू स्वीकार करें उसकी तुलना किसी धनकुबेर से की जाए, यह उस महान आत्मा की बेइज्जती से ज्यादा कुछ नहीं। तुलना का भी कोई तो आधार होना चाहिए। बापू ने हमेशा स्वदेशी और स्वराज्य पर जोर दिया पर कोई जाकर तो देखे अंबानी बंधु के घर में इस्तेमाल होने वाली चीजों में से कितनी भारतीय है। बापू ने लघु उद्योगों को बढ़ाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन अंबानी बंधु ने तो रिलायंस फ्रेश जैसा प्रोजेक्ट लाकर गलियों की छोटी-छोटी दुकानों और ठेले थड़ी वालों की भी रोजी रोटी छीन ली। बापू ने सब कुछ त्यागने का लक्ष्य रखा और अंबानी बंधु हमेशा सबसे ज्यादा धनी बनने की फिराक में लगे रहते हैं। कहा जाता है कि महावीर के बाद अहिंसा का पूजने वाला अगर कोई शख्स था तो वे थे सिर्फ महात्मा गांधी। जिन्होंने अहिंसा के दम देश को आजादी दिलाई, लेकिन आज अगर मुकेश अंबानी को कोई छोटी सी गाली दे दे तो शायद वे पूरी फोर्स बुला लें और प्रशासन भी इसमें पूरा सहयोग करे। गांधी जी सत्य के पुजारी थे, इसलिए वे हमेशा राजनीतिक पद से दूर रहे, क्योंकि राजनीति और व्यापार झूठ के बिना आगे नहीं बढ़ते, फिर अंबानी बंधु तो देश के सबसे बडे़ व्यापारी हैं, इसलिए कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि उन्हें बात-बात में झूठ बोलना पड़ता होगा। अगर मुकेश का चरित्र वाकई गांधीजी जैसा होता तो वे एक बार इस तुलना का विरोध करते और बापू के प्रति सम्मान का भाव प्रकट करते, क्योंकि यही एक महान व्यक्तित्व की पहचान होती है। हैरत की बात यह भी है कि किसी अखबार ने भी इस लेख का विरोध नहीं किया, शायद यही सोचकर कि अंबानी गु्रप से उन्हें करोड़ों के विज्ञापन मिलते हैं। याद रखें अंबानी बंधु शिखर से गिर कर तो आदमी खड़ा हो सकता है, लेकिन नजरों से गिर कर नहीं, इसलिए ऐसी तुलना से बचने की कोशिश करें।

गुरुवार, 29 मई 2008

नमन मेरा स्वीकार करें

ब्लॉग जगत के सभी साथियों को मेरा वंदन-अभिनंदन। मेरी मनोभावनाएं भी अब आपको सुलभ हो सकेंगी। आवश्यक मागॅदशॅन कर प्रोत्साहित करते रहेंगे सभी, इसी आशा के साथ - तरुण जैन।